Sunday, November 15, 2009

कैसा बनना है?

ब्लॉग से....
सुधीश पचौरी न रवीश कुमार
बहुत दिनों से जो बात कहना चाह रहा था उसे किसी युवा पत्रकार ने कह दिया। साफ-साफ कह दिया कि हम किससे प्रेरणा लें। हिंदी में कोई नहीं है। न रवीश कुमार से प्रेरणा ले सकते हैं न सुधीश पचौरी से। मेरी तो अभी सीखने की उम्र भी खतम नहीं हुई है और जो काम किया है वो निहायत ही शुरूआती है तो प्रेरणा क्या दूंगा। खैर ये सफाई नहीं हैं। सहमति है। यही बात जब मैंने एनडीटीवी के मीडिया स्कूल में कही थी तो लगा था कि कुछ ज़्यादा बोल गया। अब कह सकता हूं कि कई लोग ऐसा ही सोचते हैं। एनडीटीवी के मीडिया स्कूल में नए छात्रों से मैं कहने लगा कि हिदी टीवी पत्रकारिता में ऐसा कोई भी नहीं है,जिसकी तरह आप बनें। हम सब औसत लोग हैं। औसत काम करते हुए बीच-बीच में लक बाइ चांस थ्योरी से कभी-कभार अच्छा भी कर जाते हैं। लेकिन हम सब टीवी के लिहाज़ से मुकम्मल पेशेवर नहीं हैं। मैं छात्रों से गुज़ारिश कर रहा था कि मेरी बात याद रखियेगा। किसी से न तो प्रभावित होने की ज़रूरत है न प्रेरित। आप अपना रास्ता खुद तय करें और तराशें। लौट कर आया तो लगा कि कहीं ये संदेश न चला गया हो कि बंदा निराश हताश टाइप का है। लेकिन जब एक लड़के ने खम ठोक कर यह बात कह दी तो लगा कि वाह। मूल बात तो यही है। दूरदर्शन के कार्यक्रम 'चर्चा में' की रिकार्डिंग चल रही थी। प्रभाष जोशी को याद किया जा रहा था। आईएमसी और अन्य पत्रकारिता संस्थान के छात्र थे। काफी जोश और ज़िम्मेदारी से बोले। उनकी बातों से हमारे पेशे में आए खालीपन को महसूस किया जा सकता था। वो अच्छा पत्रकार बनने के लिए बेचैन नज़र आए लेकिन वो सब वैसा ही क्यों बनना चाहते हैं जो पहले हो चुका है। वो किसी की तरफ देखते ही क्यों हैं। अगर यह नई पीढ़ी अपने जोश को बचा ले गई और मेहनत से काम को तराशती रही तो अच्छा कर जाएगी। दफ्तरी आशा-निराशा के चक्कर में फंस गई,छुट्टी लेने के लिए दादी-नानी को बीमार करती रही,वो नहीं करता तो मैं क्यों करूं टाइप की अकड़ पालती रही तो वही होगा जो हमारी पीढ़ी का हुआ। और ऐसा भी नहीं है कि हमारी पीढ़ी में लोगों ने साहसिक काम नहीं किये। बेहतर टीवी रिपोर्ट नहीं बनाई। बनाई। लेकिन जो हो रहा है उससे सबके किये कराये पर पानी फिर चुका है। बहरहाल नवोदित पत्रकारों की चिंताओं से लगा कि आज भी हिंदी का पत्रकार इसीलिए पत्रकार बनना चाहता है कि वो समाज में बदलाव चाहता है। गरीबों की आवाज़ उठाना चाहता है। कितनी बड़ी बात है। फिर ऐसा क्या हो जाता है कि नौकरी पाने के बाद कोई इस जुनून को साधता हुआ नज़र नहीं आता। यही प्रार्थना है कि इनका जुनून बचा रहे। यह कार्यक्रम शनिवार को आएगा। विद्रोही बुलंद पत्रकार को साधुवाद।

एक अच्छी बहस चल रही है। हालाकि कुछ लोगों की तर्कों से मैं सहमत नहीं हूं। मेरी नज़र में आज क्या पत्रकार कुछ ऐसे है। वो कोई भी ख़बर पहले ब्रेक करना चाहते है। और VISUAL सबसे पहले PLAY करना चाहते है...EXCLUSIVE TAG के साथ...वो ख़बरों से खेलना चाहते है। LIVE,PHONE,BREAKING,EXCLUSIVE. वो किसी चैनल पर ख़बर आने के बाद ब्रेक करने पर बहुल गुस्साते है। चीखते है, चिल्लाते है। हमें कोई नहीं पहले पता चला। कभी कभार इस जल्दबाजी में CONFIRM करने की भी जरूरत नहीं महसूस करते। JUST GO FOR THAT. बड़ी ख़बर के दूसरे चैनल पर आने के तुरंत बाद वो इसकी जानकारी FIELD से मांगते है। कभी मिलने पर और कभी उससे पहले ही शुरू हो जाते है। वो तुरंत प्रसिद्ध होना चाहते है। EXCLUSIVE ख़बरों के पीछे रहते है। भले ही इससे किसी का फायदा हो रहा हो या नहीं। हाल ही में SWINE FLUE का कहर देश ने झेला। इसी वक्त जामताड़ा,झारखंड में मौजूद एक पत्रकार से मेरी बात हुई। मैंने पूछा क्या कर रहे है आजकल। उन्होने कहा बस ऐसे ही है। छोटी जगहों से बड़ी ख़बर कहां से निकालू। फिर मैंने स्वाइन के बारे में बताया और पूछा कि वहां कोई मरीज मिला है क्या। उन्होने कहा अरे भाई क्या बात कर रहे हो। फिर मैंने पूछा भाई ऐसा क्यों कह रहे हो। कुछ महीने बाद उन्होने बताया कि उन्होने जामताड़ा में SWINE FLUE पर रिपोर्टिंग की और उनके चैनल में खूब चली। दरअसल उन्होने कुछ स्वास्थ्य अधिकारियों से बात कि जिन्हे ये पता नहीं था कि स्वाइन क्या बला है। वो बहुत खुश थे वो रिपोर्ट कर,कई बार फोनो चला था, जामताड़ा के दूसरे रिपोर्टर उनसे नाराज हो गए थे...बिना बताए स्टोरी कर डाली। इन्हे कोई चीज बेहतर चलाने से ज्यादा चिंता ख़बर को पहले चलाने से है। वो बड़ी ख़बर देखने को लालायित होते है...बिना देर किए तुरंत उस पर आगे बढ़ जाना चाहते है। ये हडबड़ी कभी-कभी खतरनाक होती है। हेडली-राहुल प्रकरण पर ही सोचिए। राहुल भट्ट का नाम आता है। क्या बिना राहुल के STAND जाने हमें ये ख़बर चलानी चाहिए? मैं चाहूंगा कि वरिष्ठ लोगों आज के इन युवा पत्रकारों की हडबड़ी पर कुछ बताएं।

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