Friday, May 8, 2009

VOTE AND FLOOD

2008 में आई बाढ़ की तबाही का असर अब भी बिहार के पंद्रह जिलों में देखा जा सकता है। लेकिन अब बाढ़ से हुई बर्बादी पर पर वोट की फसल काटी जा रही है। बाढ़ के दौरान नेताओं के तुफानी दौरे और आरोप-प्रत्यारोप ने हंगामा बरपा रखा था। लेकिन सिर्फ आठ महीने में ऐसा लगता है जैसे सबकुछ भूला दिया गया हो। कोसी की त्रासदी झेलने के बाद पीड़ितों ने राहत की जो उम्मीद लगा रखी थी वो अब चुनावी लहर में बहने लगी है। हैरानी की बात ये है कि लोकसभा चुनाव के मद्देनजर राज्य सरकार ने राहत और पुनर्वास का काम पूरी तरह रोक दिया है। बाढ़ में जिन्होने अपना सबकुछ खो दिया है...फिलहाल उनके पास वोट एक ऐसा हथियार है जो नेताओं को डरा रहे है। लेकिन ये नेता उस बाढ़ को याद नहीं करना चाहते। क्योकि लोगों का गुस्सा अभी शांत नहीं हुआ है। एक और हैरान करने वाली बात ये है कि बाढ़ की समस्या बिहार में ऐसे राजनीतिक मुद्दे बन गए है जो पहले लोकसभा चुनाव से अब तक लगातार किए जा रहे है। लेकिन विडंबना भी यही है कि आज तक इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए। हर साल बिहार के लोग बाढ़ की तबाही झेलते है। तब खूब हंगामा मचता है। केन्द्र सरकार और राज्य सरकार दोनों ही अपनी तरफ से कोशिश शुरू करते हैं। लेकिन ये सब बस कुछ सप्ताह या महीने भर ही चलता है। इस बार भी इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित किया गया था। केन्द्र से राज्य सरकार को राहत और पुनर्वास कार्य के लिए लिए हरसंभव मदद उपल्बध करायी गय़ी। नेपाल से भी बात शुरू हो गई। कोसी की धार जैसे ही कुछ कम पड़ी फिर सबकुछ भगवान भरोसे छोड़ दिया गया। जैसे सबने सोच लिया कि अब अगले साल देखा जाएगा। इस आपदा में 15 जिलों के करीब 40 लाख
लोग प्रभावित हुए है। इनमें करीब 20 लाख लोग तो सिर्फ चार जिलों के ही थे। सहरसा,सुपौल,अररिया और मधेपुरा में बाढ़ ने प्रलयंकारी रुप ले लिया था। कोसी के इस कहर में सैकड़ों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। हजारों मवेशी चल बसे। हज़ारों एकड़ भूमि पर लगी फसन नष्ट हो गयी। जहां-जहां कोसी की धारा रेत लेकर पहुंची...वहां की उर्वर भूमि रेगिस्तान हो गई। लाखों लोगों के मकान पानी ने बहा लिए। और इन सब के साथ कईयों के अरमान। नेपाल के कुशहा में 18 अगस्त को कोसी का तटबंध टूटने से इसकी शुरूआत हुई। इसके बाद कोसी ने अपनी राह बदल ली। और इसकी धारा की चपेट में जो भी इलाके आए जलमग्न हो गए। सुपौल,अररिया, सहरसा,मधेपुरा, कटिहार, खगड़िया, भागलपुर, पूर्णिया समेत कुल पंद्रह जिलों में इसने जमकर तबाही मचाई। पिछले 50 सालों में ऐसी बाढ़ कभी नहीं आई थी। जाहिर है ना तो प्रशासन, सरकार या फिर लोग ही इसके लिए तैयार थे। पहले इस पर भी आरोप-प्रत्यारोप हुए। इन बाढ़ प्रभावित जिलों में चुनाव प्रचार के शोर में बाढ़ की तबाही कहीं दब सी गई। जातिगत समीकरण और कुछ ऐसे मुद्दे जिनसे यहां के वोटरों का कुछ भी लेना देना नहीं...वहीं हावी रहे। विकास की बात कभी-कभार हो जाती थी। लेकिन बाढ़ पर कौन बोले और क्या बोले। सो नेताओं ने इस मु्द्दे से खुद को किनारा रखने में ही भलाई समझी। फिलहाल तो सबका मिशन एक ही है...किसी तरह से जीत हासिल करना....और ऐसे मु्द्दे को ना छूना जिससे जनता नाराज हो सकती है। शायद बाढ़ पर बोलने के लिए उन्हे अगली बार यहां बाढ़ आने का इंतज़ार हैं। लेकिन नेताओं को भी मालूम है कि.... ये पब्लिक है सब जानती है।

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